Tuesday, February 21, 2023

 A Disruptive Technology


Einstein had once legitimately asked his teacher, and not irrationally, as to why you burden us with dates and facts, and the likes of 'the longest river and the biggest monument'.

I'm not interested in knowing how many armies were killed in which war. Or, which army killed more than which other?

The factual and procedural knowledge (please read information) can always and way more conveniently be accessed and leveraged on the internet.


AI is a Disruptive Technology.


The disruptive technologies have been 'wheels', 'electricity' and 'cellphones' and lot more.


Stop stuffing your child with factual and procedural knowledge.

We burden our students with such useless facts at the expense of HIGH ORDER COMPETENCIES like appreciating a situation and responding to it in their own original way.


The examination agencies, schools, colleges, universities, CBSE, PUBLIC SERVICE COMMISSIONS etc MUST MUST wake up to the call.

Stop asking who won what and who didn't.

The most chewed management cliche - Selection is a negative process - needs a changeover.

A competitive examination must assess the ability of the aspirant to handle a situation and offer her own untrodden reflection with objectiveness of her perspective.

Welcome all disruptive technologies like AI and a myriad of similar things to follow.


Umesh

Thursday, September 8, 2022

Dark Chocolate लगभग सात दोस्त थे हम. लगभग, कयोंकि कभी-कभी आठ-दस भी हो जाते थे. हम सब चौदह-पंद्रह साल के रहे होंगे. मूलतः, सीधे-सादे से थे हम. लेकिन शहर के रहने वाले थे, इसलिए गाँव वालो से थोडा ज्यादा स्मार्ट समझते थे खुद को. शहर भले छोटा था लेकिन हम उसे गाँव से अच्छा समझते थे. वैसे ही, जैसे कुछ जातियां स्वयं को कुछ अन्य जातियों से बेहतर, उच्चत्तर समझती हैं. खैर, हम सात दोस्त शाम को मिलते, बैठते, घंटो गप्पे मरते और अंत में फुटहा-खसिया, पपरा-जिलेबी, सेव-बुनिया आदि खाकर वापस खाने अपने-अपने घर को जाते. चना-मुढ़ी, जिलेबी, सेव-बुनिया आदि इसलिए खाते थे कयोंकि उस समय पिज़्ज़ा, चाऊ-मिन, बर्गर-स्पैगेटी इत्यादि नही मिलते थे. जिने का तरीका पूरा देहाती था, शायद इसलिए ज्यादा साध्य था. राजेश पटना में पढता था और छुट्टियाँ बिताने घर आया था. वो टाइट जीन्स पहना था. उसके टी शर्ट के स्लीवे भी काफी छोटे थे. वैसे हमलोग भी जीन्स पहनते थे लेकिन हमारे जीन्स मसनद तकिया कि तरह गोल गोल झूलते हुए दीखते थे. और टी-शर्ट के बाजू तो कोहनी के निचे तक आते थे. छोटे शहरो के स्टाइल का सेन्स अभी बड़े शहरों की तरह ‘ईटिंग बाई फ़ॉर्मूला’ वाला नही हुआ था. शाम को वो भी हमारे साथ घुमने आया. एक्चुअली वो आया था - घुमने कम, भौकाल बनाने ज्यादा. सभी उसके फिटिंग जीन्स – टी शर्ट देखकर इम्प्रेस्सेड थे. गर्मियों के दिन थे. नदी के किनारे कहीं-कहीं बहुत ऊँचे थे. एक शाम हम सरे दोस्त इकट्ठे उन्ही में से एक टीला जैसी जगह पर हमसब बैठ गये. गप्पें चलने लगी. राजेश पटना के अपने ‘इंग्लिश-मीडियम’ स्कुल की बाते बताने लगा. बातें अक्चुअली काफी इंटरेस्टिंग थी. सब कान में कान लगाकर सुनने लगे. -एनुअल डे में हमलोग डांस करते हैं, मैंने ‘ये काली-काली आँखें’ पर डांस किया था. -अरे एकदम शाहरुख़ खान बन गया तू तो? -अकेले किया था डांस? -अकेले? आर यु क्रेजी? लॉट्स ऑफ़ गर्ल्स!! -गर्ल्स!! -लड़की?? सब हाउ-हाउ चिल्लाने लगे. राजेश एकदम ब्लश करने लगा. तभी किसी ने कहा, -साला बुरबक समझते हो का बे? कोई टीचर किसी लड़का को लड़की को छूने देगा का? और डांस बिना छुए हो सकता है का. इहवां एगो लड़की को एगो लड़का खाली छु भर दिया था सुरसती पूजा के पोरग्राम में, मास्टर लोग धुन के रख दिए थे ससुर को. और तुम बकलोली खाद रहा है. साला हमलोगों को एकदम चोन्हर बुझता है का रे? वह सफाई देता रहा. कोई विश्वास कर ही नही रहा था. इसी चक्कर में हमलोग भूल गये थे कि चने भी थे. अतः खसिया-फुटहा निकल गया, खादोना में था. सब खाने लगे. राजेश फिर स्टाइल मारने लगा. वह सिर्फ देखता रहा. -मुंह काहे ताक रहा है, खाओ कि तुमको नेवता भेजना पड़ेगा का? -कम ऑन, ये क्या बोरिंग चीजे खाते हो तुमलोग? -बोरिंग? चना बोरिंग होता है? बनेगा जादा हीरो? तुम का खाता है, पन्तुआ? -व्हाट्स पंतुआ? -तो तुम पन्तुआ नही जानता है? -नो. आइ डोन्ट नो. -अरे केतना अंग्रेजी झाड़ रहा है भाई? हिंदी-भोजपुरी एकदमे भुलाइये गया का? -फुटहा नही खाता तो क्या खाता है बे? -मी? -येस तुम रे. इस पर राजेश ने पूरा फिल्मी स्टाइल में अपने जीन्स में हाथ डाला. हम सब टुकु-टुकु ताकने लगे. -वाओ उसने जेब से डार्क चोकलेट निकाला. डार्क चोकलेट जानते हैं आपलोग? राजेश फिर से अंग्रेजी झड़ने लगा. -दिस इज डार्क चोकलेट गाईज़. इसमें कोकोया होता है. इससे एंडोर्फिन बढ़ता है. यह टेंशन दूर करता है. इसलिए डार्क चोकलेट खाते हैं हमलोग शहरों में. उस दिन पहली बार मै जाना कि DARK CHOCOLATE इतना इम्पोर्टेन्ट होता है. अभी अभी दूसरी बार जाना कि DARK CHOCOLATE एक्चुअली इतना इम्पोर्टेन्ट होता है. तो आप भी खाइए डार्क चोकलेट. उमेश

थुथुना तोड़ देना लघु कथा लखन तेरह साल का था. आर्यन ग्यारह साल का था. दोनों कद-काठी में लगभग बराबर थे. आर्यन साहेब का इकलौता लड़का था, और छोटे कद का घुघुनी उनका ड्राईवर था. ड्राईवरों का स्टेटस घरेलु नौकरों से कुछ खास अलग नही है इस देश में. नौकर था इसलिए उसे मालिक की इज्ज़त करनी होती थी. वह साहेब की उतनी इज्ज़त जरुर करता था जितना में काम चल जाए. मतलब, बहुत हद तक सीधी रीढ़ वाला आदमी था. दिलचस्प बात यह है कि लखन की रीढ़ कुछ ज्यादा ही सख्त थी. उसकी उम्र से ज्यादा उसकी समझदारी थी. इसी दानिशमंदी के कारण उसे कई बार अपनी ही रीढ़ के खिलाफ झुककर खड़ा होना पड़ता था. साहेब का बंगला एक बड़े कैम्पस में था. उसी कैम्पस में घुघनी का परिवार भी रहता था, सर्वेंट क्वार्टर्स में. नौकर और साहेब दोनों के एक-एक बच्चें ही थे. हमउम्र थे और अकेले भी, इसलिए खेलना-कूदना साथ-साथ होता था. और, पढना-लिखना अलग-अलग जैसे खाना-पीना, पहनना-ओढना इत्यादि अलग-अलग थे. आने वाली ज़िन्दगी के फलसफें लगभग साफ थे, दोनों के लिए. किस हद तक किसको किसके साथ कितनी करीबियां बढानी है, और नही बढ़ानी है, किसको कितना बोलना है, कितना सुनना है, और सबसे महत्वपूर्ण, किसके आगे कितना झुकना है और किसके आगे नही झुकना है - दोनों इस फलसफे को समझने लगे थे. बैडमिंटन रोज़ होता था, और लखन अक्सर ही जीतता था. हांरने के बाद आर्यन, लखन को उल्टा-पुल्टा बोलकर अपनी खीझ निकाल लिया करता था. आखिर, रोज़-रोज़ हारकर कोई कितना कण्ट्रोल रख सकता है अपनी खीझ पर? हालाँकि, बड़े साहेब ने घुघुनी को इशारों में समझाया था कि ‘हारना भी चाहिए’. लेकिन यह क्लियर नही किया था कि जानबुझकर हारना चाहिए कि नही. आज आर्यन फिर से हार गया था. -फ़क यू डॉल्ट. -क्या बोला रे? ज़रा फिर से बोल तो. -फ़क यू डॉल्ट. छोटे साहेब ने उसी फ़्लुएन्सी के साथ ‘ला-मार्ट एक्सेंट’ में दोहराया. यह एक गाली थी, लखन के लिए. ‘ला-मार्ट’ में यह महज़ एक कल्चर सिग्नेचर था. लखन म्युनिसिपाल्टी स्कूल में सातवीं ज़मात में था. आर्यन ला-मार्ट में सेवेंथ स्टैण्डर्ड में. लिहाज़ा, लखन की इंग्लिश कमज़ोर थी लेकिन उतनी भी कमज़ोर नही थी कि वह ‘फ़क यू’ नही समझ सके. अहमक तो वो बिलकुल न था. -फ़क यू टू. लखन ने ज़वाब दिया, उसी लहजे में, लेकिन म्युनिसिपाल्टी स्कुल वाले एकदम देसी एक्सेंट में. यह एक इन्सल्ट था. आर्यन बौखला गया. हार की बौखलाहट तो थी ही, इस इन्सल्ट ने उसे और बौखला दिया. इन्सल्ट को झेलना सबके वश की बात कहाँ होती है? कुछ लोग अंट-शंट बोलने लगते हैं. दे लूज़ देअर एक्सेंट. कुछ लोगों को इन्सल्ट झेलने की ही ट्रेनिंग मिलती है, जैसे लखन. कुछ लोगों को इन्सल्ट नही झेलने की ही ट्रेनिंग मिलती है, जैसे आर्यन. छोटे साहेब को इल्म था कि गलत अल्फाज़ लखन को भी गलत लग सकते हैं. रोज़-रोज़ तो सहता ही था. नतीजतन, आशुफ़्ता छोटे साहेब ने रैकेट लखन के सिर पर दे मारा. मारकर छोटे साहेब रुके नही, फुर्र से भागकर बंगले के अन्दर घुस गये और गेट भी बंद कर लिए. लखन सिर पकडे हुए गेट पर खड़ा रहा कुछ देर तक. गेट खुला नही, साहेब दिखे नही. वो चिल्लाता रहा जैसे अकिलीस चिल्ला रहा हो हेक्टर के दरवाज़े पर. सिर में एक जगह पर एक गिलट निकल गयी थी, स्वेलिंग - उसी तरह जिस तरह अधपकी रोटियों के बीच में वेपर स्वेलिंग निकल आती है. --------------------- देर शाम को लखन बरामदे में चारपाई पर बैठकर अपने सिर पर बर्फ रख रहा था. एक इनोवा अन्दर घुसी. बंगले के पास दो आदमी उतरे. वह आइस-ट्रे को लेकर अन्दर भाग गया. एक आदमी बंगले में घुस गया. दूसरा आदमी बैग, चाभी देकर, सर्वेंट क्वार्टर्स में आ गया. सर्वेंट क्वार्टर्स के अंदर से आवाज़े आने लगी. -ई देखिये तो इसका कपार केतना फुला दिया है मारकर. -कौन? -कौन का, उहे आर्यनवा. बड़का बाप का बिगडैल बेटवा. -बात का बतंगड़ काहे बना देती हो? खेल-कूद में चलता है ये सब? -आपके कपरा पर मारे का? चलता है सब कुछ! -बहुत जादा दुख रहा है का? घुघुनी लखन के सिर पर हाथ रखकर बोला. -ना दुखेगा नही तो गुड-मिठाई लगेगा? घुघुनी की पत्नी एकदम खिसियाई हुई थी. लखन उठकर अन्दर चला गया. सीधी रीढ़ वाला आदमी भी कुछ सोचकर बैठ गया. -बोलेंगे? -का बोलू? काल्ह से दुनो साथै खेलने लगेगा. बेकार में कपर-फुटौवल करे का? जरुरत होगी तो मै बात करूंगा. वह अन्दर चली गयी. शायद चाय बनाने. अन्दर से आवाज़ आयी. -उसका कट्टर लाये हैं? -नहीं. टाइम नही मिला आज. लखन ब्लेड खोजने लगा. --------------- बंगले के अन्दर से भी आवाज़े आ रही थी. -कैसे हुआ ये सब? बड़े साहेब की आवाज़ थी. -आय गॉट पिस्ड ऑफ़. कॉल्ड हिम डॉल्ट. . ‘फ़क यू डॉल्ट’ की जगह सिर्फ ‘डॉल्ट’ बताकर छोटे साहेब ने बड़े साहेब को आधी-अधूरी सुचना दी जैसे सारे छोटे साहेब अपने बड़े साहबों को आधी-अधूरी सूचनाए देते हैं. ऑफिस डिप्लोमेसी छोटे साहेब बड़े साहेब से ही सिख रहे थे. -ओह! बड़े साहेब सिर्फ ‘ओह’ ही बोल पाए. -माय कमेन्ट वाज़ नॉट अव्फुल, यू सी. छोटे साहेब ने अपना तर्क भी दे दिया. खुद ही जज बनना सुविधा-संपन्न साहेब-वर्ग की एक क्रोनिक बीमारी है. -फिर? उसने भी बोला और मुझे गुस्सा आ गया. एंड आय हिट हिम विद माय रैकेट. -ओह! आई सी. बड़े साहेब ने फिर से ‘ओह’ बोला ‘आय सी’ जोडकर. -माय मिस्टेक ! -डोंट यू वरी यंग मैन. फिर बड़े साहेब ने बैग से एक पैकेज निकला, ‘एप्पल मैक-बुक’ लिखा था उसपर. -ओह थैंक यू डैड. -ऑलवेज डिअर. -------------------- चार-पांच दिन बितते-बितते स्वेलिंग ख़त्म हो गयी. लेकिन ‘फ़क यू डॉल्ट’ लखन के कानों में गूंजता रहा. वह जितना सख्त था उतना ही सेंसिटिव भी. शायद सख्ती और सेंसिटिविटी भी कुछ लोगों में एक साथ होती हैं जैसे कुछ लोग लिट्टी और इडली एक साथ खाते हैं. वह अकेला महसूस करने लगा. एक-दो दिन बाहर के लड़कों के साथ खेलने गया. लेकिन यह सिलसिला लम्बा चल न सका. और, अन्दर में बाहरी लड़के नही आ सकते थे, सख्त मनाही थी. छोटे साहेब बंगले अन्दर ही छुप गये थे जैसे कुछ लोगों को हाउस-अरेस्ट करके घर के अन्दर रखा जाता है. स्कुल जाना नही था, समर वेकेशन चल रहा था. लखन जब बहुत बोर हो गया तो एक दिन आर्यन की खिड़की के पास जाकर आवाज़ देने लगा. अन्दर में, खिड़की के पास ही छोटे साहेब बैठे थे. बड़े बंगले के गार्डन की तरफ खुलने वाली यह वो खिड़की थी जहाँ बैठकर छोटे साहेब हर सुबह बर्ड वाच करते थे. थोड़ी देर में खिड़की बंद हो गयी. दोस्ती भी अजीब मसला है. कुछ लोग बद्तामिज़ियाँ सहकर भी दोस्त को खोजते हैं. कुछ लोग चुपचाप बर्ड वाच करते हैं. लखन आवाज़ देता रहा. जब कोई जवाब नही आया तो लखन ने जोर से – बिल में घुस गया काहे रे, चूहा!! वह आवाज़ देता जा रहा था और गिन भी रहा था. उसे खुद पर कोफ़्त होने लगा. उसने कुल बीस बार आवाज़े दी, फिर लौट आया, मायूस और खिझा-खिझा बिना मछली के वापस लौटे किसी मछुआरे की तरह. अचानक, उसे इंग्लिश का एक शब्द याद आ गया – डेडलॉक. आर्यन से ही सिखा था, शब्द भी और इसका व्यवहार भी. ----------------------- पंद्रह दिन बीत गये. लखन अकेले ही रहने लगा. खेलना बंद था. बातचीत बंद थी. ‘डेडलॉक’ चालू था. ------------------------ -घुघुनी, कुछ हुआ था क्या? घुघुनी साहेब का बैग रखकर अन्दर से निकल ही रहा था कि साहेब ने अचानक पूछ लिया. -नही तो, सर ! घुघुनी साहेब को सीधा देखते हुए बोला. साहेब ने उसके ‘नही तो’ में छिपे हुए तंज़ का अंग्रेजी में तर्जुमा किया तो सीधा-सीधा मीनिंग निकला – ‘यू हिपोक्रेट’. साहेब जानते थे कि अगर लखन उनके छोटे साहेब के साथ नही खेलेगा तो छोटे साहेब उदास हो जायेंगे. चुनांचे, कभी-कभी मल्होत्रा साहेब का लड़का आ जाया करता था, या फिर आर्यन ही उसके घर चला जाया करता था. फिर भी उसमे वो बात नही थी जो लखन के साथ खेलने में थी. मल्होत्रा साहेब इस साहेब के भी साहेब थे. और उनका लड़का आर्यन को अक्सर ‘यू डॉल्ट’ बोल देता था. इसलिए, आर्यन को भी लखन की उतनी ही जरुरत थी जितनी लखन को उसकी. -आर्यन बोल रहा था कि लखन खेलने नही आ रहा है कुछ दिनों से. घुघुनी जनता था कि लखन उसे बुलाने गया था, बीस बार चिल्लाया था. आर्यन ही नही निकला था. वह झूठ बोला था बड़े साहेब से कि लखन नही आ रहा है. अक्सर जो लोग ‘सिचुएशंस’ को नही झेल पाते, वो झूठ का सहारा लेते हैं. आर्यन को झेलना नही सिखाया गया था. वैसे, झूठ बोलना भी नही सिखाया गया था लेकिन ओवर-इन्डल्जेंस कुछ लोगो को वैसे ही स्पोइल कर देता है जैसे अधिक चीनी चाय को. -जी साहेब, आ जाएगा. आज बोलूँगा उसे. -उसे शायद चोट लगी थी. पंद्रह दिनों के बाद जब साहेब ने ये पूछा तो अनायास ही घुघुनी के मुह से निकल गया. -सर, हमलोगों को चोट कहाँ लगती है. साहेब ने इस तंज़ में छिपी हुई शिकायत को ककहरा की तरह पढ़ते हुए सीधे-सीधे ‘क अनुस्वार क:’ पर रुके. -देखो, उसने गलती मानी है. ही सेड – माय मिस्टेक.... मेरी गलती. -गलती मान लेने से गलती ख़त्म तो नही हो जाती साहेब? घुघुनी के इस कदर इतना सीधा सवाल पूछ लेने से साहेब एकदम सन्नाटे में आ गए. -व्हाट डू यू मीन? तुम भी इसका सर फोड़ोगे? -नही साहेब, बिलकुल भी नही. लेकिन गलती होने पर माफ़ी तो मांग ही सकते हैं न. फिर गलती भी खुद ही करेंगे, बातचीत भी खुद ही बंद करेंगे तो आखिर ये लोग एक साथ कैसे खेलेंगे. -‘माय मिस्टेक’ बोलने का कुछ मतलब होता है घुघुनी. -जी सर, जरुर होता होगा. लेकिन मै कम पढ़ा-लिखा आदमी हूँ, सीधी बात ही समझता हूँ. -और वो सीधी बात क्या है? -माफ़ी मांगना चाहिए छोटे साहेब को लखन से. उसका कपार फोड़े है. -आर्यन, से सॉरी टू लखन टुडे. -आय हैव टोल्ड यु – माय मिस्टेक. ही कॉल्ड में माउस. -माउस? -येस, माउस. बड़े साहेब घुघुनी कि तरफ देखते हुए बोले – -लखन ने इसे चूहा बोला, बताओ कितनी गन्दी बात है यह. इसे कितना सदमा लगा होगा. कैन यू इमाजिन? बड़े साहेब ने फैसला कर दिया था. घुघुनी भी समझ गया था कि जब तक वो उसके साहेब रहेंगे तब तक फैसले ऐसे ही होंगे. फिर कुछ सोचकर साहेब आर्यन की तरफ देखते हुए बोले. -माय मिस्टेक इस नॉट इक्वल टू ए फॉर्मल अपोलोजी डिअर. यू नीड टू कोम्प्रोमाइज ऐट टाइम्स. साहेब हिंदी में कुछ और अंग्रेजी में कुछ और ही तर्क दे रहे थे. हिंदी और अंग्रेजी सिर्फ भाषाएँ न रहकर, सोशल बाइनरी बन गयी हैं. आर्यन पैर पटकते हुए अन्दर चला गया. -शाम को भेज देना लखन को खेलने के लिए. -जैसा हुकुम साहेब. ----------------- घुघुनी जब घर आया तब लखन अपनी टूटी हुई बैडमिंटन रैकेट को रस्सी बांध रहा था. -खेलने जाना आज से. साहेब ने बोला है. -ठीक है. लखन घुघुनी को देखे बिना ही बोला. लखन खुश था कि अब वो दोनों साथ खेल सकेंगे. -अबकी माँरेगा तो का करोगे? उसकी माँ ने अचानक से एक तारांकित-सा सवाल पूछ लिया. लखन सर उठाकर अपनी माँ को देखा. फिर अपने पिता कि तरफ देखने लगा गोया पूछ रहा हो कि क्या करना चाहिए. -करेगा का? थुथुना तोड़ देना अबकी बार और बोल देना – माय मिस्टेक. लखन घुघुनी को देखा वैसे ही जैसे आप उस ईमेल को देखते हैं जिसमे लिखा होता है कि आप एक करोड़ रुपये जीत गये हैं. उमेश

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Sunday, December 11, 2016

    कम्ज़र्फी 
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ये कम्जर्फी उसने यूँही ही ना बनायी होगी
हांथो की करीगारी है ये, इतनी संजीदगी तो उसे भी आयी होगी.
कारीगर है वो उम्दा कोई शक नहीं,
गलतियाँ जरुर शागिर्दों से करवायी होगी,
ये कम्जर्फी उसने यूँही ही ना बनायी होगी.

कुछ कुसूर हमारा भी रहा होगा,
‘सब्र कर थोडा वक्त लगेगा’ हमसे भी कहा होगा,
कमजर्फ इंसानों की जमात में,
आशुफ्ता सी जिंदगी मशरूफ है शाह और मात में,
नुक्ताचिनों को इसपर हंसी जरुर आयी होगी.
ये कम्जर्फी उसने यूँही ही ना बनायी होगी

नाकाबिल इंसान बनाना कहाँ की अक्लमंदी है,
शहर में अदीबों के आने जाने पर वैसे ही पाबंदी है,
तसव्बुफ़ से जरुर उसे कोई दिक्कत पेश आयी होगी,
यू ये कम्जर्फी उसने यूँही ही ना बनायी होगी.

गुस्ताखियों का दौर यूँ ही चलता रहेगा अकिबत तक,
मरहला – दर – मरहला सब सहते आए हम अब तक,
खामोशी से सहने की आदत यूँ आते-आते आयी होगी,
ये कम्जर्फी उसने यूँही ही ना बनायी होगी.

इस सुर्ख रात में, एक कमजर्फ इंसान है बावस्ता तुमसे,
इल्म नहीं था की यूँ मिलेगी तल्खियाँ आहिस्ता –आहिस्ता तुमसे,
कुछ – ना – कुछ तल्खियाँ तुम्हारे हिस्से भी आयी होगी
ये कम्जर्फी उसने यूँही ही ना बनायी होगी.

उमेश कुमार


कविता
कविता,
कई बार लिखी मैंने
ये बात दीगर है की तुम पढ़ न सके,
शायद शब्दों की अनुपस्थिति के कारण.

शब्द,
बहुत तलाशे मैंने,
अपने अंतःकरण के शब्दकोष से,
जिसमे मिली सिर्फ ठिठुरती हुई भावनाएं.

भावनाएं,
उमड़ती हैं शाम-दोपहर मन के समंदर में,
और यथार्थ के किनारों से टकराकर
वापस चली आती हैं मुझमे , हताश.

यथार्थ,
अक्सर वो नहीं होता,
जो तुमसे लोग कहते हैं, या फिर,
जो लोगों को रोजाना अख़बार कहते हैं,
यथार्थ सिर्फ यथार्थ होता है.

अख़बार,
कागज़ के चाँद पन्ने,
हर सुबह खबर के नाम पे हताशा बेचते,
गोया शाजिश हो खुशियों के अपहरण की.

हताश,
अब क्यूँकर होने लगे हम,
हमारे चेहरे की हताशा सदियों पुराणी है,
तुम सिर्फ देख ना सके कभी,
तुम ‘देखे या ना देखें’ की कशमकश में थे शायद.

कशमकश,
में सिर्फ तुम ही नही ये सारा ज़हां है,
घर से निकलते कहाँ को और पहुँचते कहाँ हैं,
चिट्ठियों का पता यहाँ, ठिकाना वहां है.

ठिकाना,
क्या सिर्फ उसी को कहते हैं,
जहाँ तुमने पत्थरों के घर बना लिए,
तो फिर वो क्या है जहाँ तुम्हे कोई रोज महसूस करता है,
और उड़ते जहाज़ों को देखकर, तुम्हारी चर्चाएँ होती हैं.

चर्चा,
छोड़ो भी अब क्या लेकर बैठ गए,
छेड़ोगे उसके चर्चें तो फिर से चर्चें होने लगेंगे,
कौन सा तुम्हे या मुझे चुनाव लड़ने हैं.

चुनाव,
फिर से चुनाव???
नही अभी नही, बस करो प्लीज.


उमेश कुमार

Wednesday, January 20, 2010

breakin of a bud

water cant break and so does wind & amp; sky & amp;blah.....blah....... why?? have u ever wondered? .....moreover a bud can break. When a bud breaks, it renders life to a beautiful flower. So break like a bud......if at all you are doomed to break.